पेटेंट की दौ़ड में भारत मामूली खिल़ाडी!
Source : business.khaskhabar.com | Dec 21, 2015 | 

अनुप्रयोगों (अप्लीकेशंस) के समवर्ती उत्थान के बावजूद पिछले 7 वर्षो के दौरान भारत में खोजपरक क्षमताओं को स्पष्ट करने वाली पेटेंट की वृत्ति में गिरावट आई है। यह कमी भारत की नई खोजों के प्रति गुणवत्ता एवं वैधता में गिरावट को दिखाती है। यह बताती है कि भारत वैश्विक स्तर पर पेटेंट की दौ़ड में एक मामूली खिल़ाडी है। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) के अनुसार, भारत की पेटेंट वृत्तियां वर्ष 2007 में चरम पर पहुंच गई थीं। इसके बाद इसमें गिरावट आ गई। इसके विपरीत चीन इस पूरी अवधि के दौरान निरंतर आगे बढ़ता रहा।
वर्ष 2007 के बाद यह इस मामले में काफी तेजी से आगे निकल गया। इन समान वर्षो के दौरान यूरोपीय पेटेंट ऑफिस (ईपीओ) के आंक़डे भी यह दिखाते हैं कि भारत वर्ष 2013 के एक मामूली उत्थान के अतिरिक्त "पेटेंट ग्रांट परफॉर्मेस" के मामले में व्यापक सुधार करने में विफल रहा है। चीन ने इस मामले में भी समान मानदंडों के तहत बहुत अच्छी बढ़त दिखाई है। इसके अलावा भारत के पेटेंट कार्यालय द्वारा दी जाने वाली वृत्तियों में वर्ष 2009 एवं 2014 के बीच लगभग एक तिहाई की गिरावट दर्ज की गई। यूनाइटेड स्टेट्स पेटेंट एंड ट्रेडमार्क ऑफिस (यूएसपीटीओ) के आंक़डे चौंकाने वाले साबित हुए हैं। इसके अनुसार, वर्ष 2000 के दशक की शुरूआत में भारत की पेटेंट वृत्तियां उसके स्पर्धी देशों की तुलना में कहीं अधिक तेज थीं।
यह प्रवृत्ति वर्ष 2009 तक काफी तेज नजर आई। डब्ल्यूआईपीओ में अचानक गिरावट के दोहरे भार के साथ भारत की तीव्र एवं लगभग समवर्ती यूएसपीटीओ वृद्धि संभवत: इस बात का प्रमाण है कि इसके पेटेंट आवेदकों ने अपनी भौगोलिक प्राथमिकताओं को बदल दिया है। औद्योगिक संरचना संभवत: इस विरोधाभास को प्रदर्शित कर सकती है।
औषधि उद्योग की नेतृत्वशील स्थिति ...
विश्व बौद्धिक संपदा संगठन के आंक़डों के अनुसार, वर्ष 1993 से 2013 के बीच भारत की पेटेंट वृत्तियों के लगभग 40 प्रतिशत हिस्से पर फार्मास्युटिकल्स एवं ऑर्गेनिक फाइन केमिस्ट्री का दबदबा था। यह एक वर्चस्वपूर्ण स्थिति है, क्योंकि अमेरिका एवं चीन में पेटेंट वृत्ति के मामले में यह उद्योग केवल 10 प्रतिशत या इससे कम का ही हिस्सेदार है।
सिंगापुर में भी इसका योगदान मुश्किल से कुछ हद तक ही रहा है। कंप्यूटर टेक्नोलॉजी (14.31 प्रतिशत) भारत का एक मात्र अन्य उद्योग है, जिसकी उपस्थिति इस मामले में दो अंकों में नजर आती है। इस मामले में बायोटेक्नोलॉजी (5.05 प्रतिशत), डिजिटल कम्युनिकेशन (3.34 प्रतिशत) एवं मेडिकल टेक्नोलॉजी (2.25 प्रतिशत) का योगदान आpर्यजनक रूप से काफी कम है। इस प्रकार इन उद्योगों में भारत की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बहुत डावांडोल रही है। अगर प्रमुख औषधि कंपनियां, जो कि बहुत कम हैं, अपनी पेटेंट दर्ज कराने की प्राथमिकताओं को बदल दें, तो भारत के "ग्रांट परफॉर्मेस" पर प़डने वाला प्रभाव उल्लेखनीय हो सकता है।
भारत के पेटेंट ऑफिस की 2014 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, फॉर्मा व संबद्ध गतिविधियां पंजीकृत ट्रेडमाक्र्स का 15 प्रतिशत एवं ट्रेडमार्क एप्लिकेशंस का 16 प्रतिशत हैं। इसके विपरीत, व्यवसाय प्रबंधन एवं संबद्ध गतिविधियां दोनों ही केवल 6 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये 99 औद्योगिक वर्गो में काफी फासले पर दूसरे स्थान पर हैं। स्पष्ट रूप से फार्मा जगत में उच्चस्तरीय क्षमता विद्यमान है। इसलिए नई खोज की कोशिशों को स्पर्धात्मकता के वैश्विक साधनों में भारत के प्रदर्शन में सुधार के लिए श्रृंखलाबद्ध किया जा सकता है या ऎसा किया जाना चाहिए (उदाहरणार्थ पेटेंट ग्रांट्स)। इससे वैश्विक निवेशकों का और अधिक ध्यान भारत की तरफ खिंचेगा। यह अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक नेताओं और रणनीतिकारों के दिमाग में भारत की स्थिति को और अधिक विश्वसनीय बनाएगा।
यूएसपीटीओ के साधनों और शैक्षणिक प्रकाशनों में भारत के प्रभावशाली प्रदर्शन के बीच के खालीपन की वजह औषधि जगत का दबदबा भी हो सकती है। अगर दवा उद्योग वास्तव में भारत के पेटेंट प्रदर्शन को संचालित कर रहा है, तब अधिक अनुसंधानों को प्रकाशित किया जाना आवश्यक नहीं होना चाहिए। फार्मा जगत में शोध एवं अनुसंधान (आरएंडडी) नए औषधि बाजारों को कानूनी रूप से वर्चस्वता प्रदान करने के लिए अस्थायी अवसरों द्वारा संचालित है। इसके परिणामस्वरूप, प्रोप्राइटरी सूचना (पेटेंट योग्य अन्वेषण सहित) का प्रकाशन संबंधित कंपनियों की स्पर्धी स्थिति के साथ समझौता हो सकता है। कुल मिला कर देखा जाए तो पेटेंट वृत्ति के संदर्भ में फार्मा जगत पर भारत की निर्भरता देश की खोजपरक योग्यता की कमी को दिखाती है।
अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों और चीन में पेटेंट का परिदृश्य काफी संतुलित है। यह अनेक क्षेत्रों में इनकी सृजनात्मक क्षमता को प्रदर्शित करता है। यह स्थिति इनकी उच्चस्तरीय शिक्षा, अन्वेषण की संस्थागत सुविधाओं और उद्यमिता की प्रगति को प्रतिबिंबित करती है। विवधताओं से भरी नई खोजों का पोर्टफोलियो आर्थिक रूप से अधिक स्थायी रहा है। अगर फार्मा कंपनियां कहीं अन्य अनुकूल स्थितियों पा लेती हैं, तो फिर भारत इस क्षति की भरपाई कैसे कर पाएगाक् इसके अलावा भारत की फार्मा क्षेत्र पर निर्भरता पेटेंट योग्य नई खोजों के क्षेत्र में कार्पोरेट जगत के दबदबे का भी संकेत है। वर्तमान समय में उच्चतम विकास क्षमता बौद्धिक उद्योगों में दिखाई दे रही है।
भारत अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए एक अच्छा प्रत्याशी है। वह अपनी जनसंख्या के एक ब़डे हिस्से को शिक्षित कामगार में तब्दील करने और उनमें उद्यमिता की संस्कृति का संचार करने में सफल रहा है। शायद इसीलिए नैसकॉम के अध्यक्ष आर. चंद्रशेखरन ने भारत को "खोजपरक गंतव्य" बताया है।
बौद्धिक संपदा कानूनों में सुधार आवश्यक...
रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी, एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक संभावित व्यापार समूह) के लिए हाल में संपन्न बातचीत में भारतीय प्रतिनिधियों ने बौद्धिक संपदा कानूनों (ट्रिप्स-प्लस पर आधारित) के उच्च मानदंडों पर असंतोष जताया। एक हालिया सर्वेक्षण में यह पता चला है कि विभिन्न क्षेत्रों के अधिकांश नेतृत्व करने वालों ने भारत की बौद्धिक संपदा (आईपी) नीति संरचना को अपर्याप्त पाया है। यहां तक कि भारत का नाम (चीन और रूस के साथ) अमेरिका स्थित एक ऎसी "वाच लिस्ट" में है जिसका संबंध खराब स्तर के आईपी विनियमों से है। फार्मास्युटिकल रिसर्च एंड मैन्युफैक्चरर्स ऑफ अमेरिका (पीएचआरएमए) के सहायक उपाध्यक्ष ने हाल ही में यह कहा कि भारत की बौद्धिक संपदा सुरक्षा एवं प्रवर्तन की व्यवस्था "अनिश्चित" है। यह एक चेतावनी भरा आरोप है। खासकर इस बात को देखते हुए कि यह माना जाता है कि भारत का औषधि उद्योग विश्वसनीय आईपी सुरक्षा पर आधारित है।
लाभदायकता और वैश्विकता के साथ भारत की संलग्नता....
औषधि उद्योग अपनी बौद्धिक संपदा सुरक्षा की क्षमता को लेकर अनिश्चित है। इसका उत्तर स्पर्धी बनने के लिए कानून में लचीलापन लाने में नहीं, बल्कि खोजपरक स्थितियों (शैक्षणिक, संस्थागत व विनियामक) में सुधार में निहित है। नवाचार एक वैश्विक बाजार है, इसे अलग नहीं किया जा सकता एवं यह विभिन्न देशों के विविध मानदंडों के अधीन होता है। भारत की फार्मा कंपनियों ने पहले ही खोजपरकता की योग्यता को प्रदर्शित कर दिया है।
भारत सरकार आईपी सुरक्षा के लिए वैश्विक मानदंडों को अपना कर इस प्रक्रिया को गति दे रही है एवं वर्तमान समय में खोजपरक क्षमता एवं संस्कृति की आधारशिला के निर्माण में निवेश कर रही है। निष्कर्ष यह कि भारत को एकमात्र वर्चस्वशाली उद्योग फार्मा से परे जा कर दीर्घकालिक खोजपरक क्षमता के निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। शिक्षा में निवेश कर, उद्यमिता को सामथ्र्यशील बना कर एवं अपने घरेलू संस्थानों में वैश्विक विश्वसनीयता को सशक्त कर भारत ने उदीयमान उद्योगों में स्पर्धात्मकता को बढ़ावा देने के लिए एक आधार का निर्माण किया है, जिसे अभी और अधिक गति देने की आवश्यकता है।
विकास का एक दीर्घकालिक नजरिया, मानव पूंजी के प्रति वचनबद्धता एवं वर्तमान समय में संस्थागत सुधार सहित, आने वाले समय में विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश में तब्दील होने वाले राष्ट्र के लिए अंतत: लाभदायक सिद्ध होगा। (असित के. विश्वास सिंगापुर राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में "विजिटिंग प्रोफेसर" हैं, जबकि क्रिस हार्टले इसी विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं। लेखक द्वय के ये निजी विचार हैं)